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राजेन्द्र सिंह ठाकुर [ रज्जु भैया ]


       राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में पहली बार सं. 1994 में एक ऐसी घटना हुई जिसमे  संघ के तीसरे सरसंघचालक श्री. बालासाहेब देवरसजी ने अपने जीवनकाल में ही श्री.राजेन्द्र सिंहजी का सरसंघचालक पद पर अभिषेक कर दिया था। आज भी हम संघ के लिए समर्पित - राजेन्द्र सिंह ठाकुर की प्रसिद्धि और उनके विनम्र व्यवहार के कारण हम उन्हें प्रेम से रज्जु भैया ही कहते है। वे ऐसे व्यक्ति थे उनके सम्बन्ध विभिन्न राजनितिक दलों और विभिन्न विचारधारा के राजनेताओं से थे। उनके विनम्र व्यवहार के कारण ही देश - विदेश के वैज्ञानिकों के आलावा खासकर श्रेष्ठ वैज्ञानिक श्री. सी. वी. रमण का उनसे गहरा लगाव था।  
       संघ कार्य हेतु श्री. रज्जु भैया ने स्वयं की क्षमता को बढ़ाने के लिए वे संघ शिक्षा वर्ग में तीन वर्ष के परंपरागत प्रशिक्षण पर निर्भर नहीं रहे। उन्होंने प्रथम वर्ष का प्रशिक्षण सं. 1947 में तब प्राप्त किया जब वे प्रयाग में नगर कार्यवाहक की स्थिति में पहुँच चुके थे। जब सं. 1954 में श्री. भाऊराव देवरसजी बरेली के संघ शिक्षा वर्ग के समूचे प्रान्त का दायित्व सौंपकर बाहर जाने की तैयारी में थे। श्री. रज्जु भैयाजी जब उत्तर प्रदेश प्रान्त का दायित्व संभाल रहे थे , तब उन्होंने तीन वर्ष के प्रशिक्षण का निर्वाह संघ के अन्य स्वयंसेवकों के सम्मुख योग्य उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए किया।  
       प्रोफेसर राजेंद्र सिंहजी का जन्म उत्तर प्रदेश स्थित बुलंदशहर जिले के बनैल गांव में 29 जनवरी 1922 को श्री. कुंवर बलवीरसिंह एवं श्रीमती. ज्वालदेवीजी के घर हुआ था। प्रोफेसर राजेंद्रजी के पिता श्री. बलवीर सिंहजी उत्तर प्रदेश में प्रथम भारतीय मुख्य अभियंता नियुक्त हुए थे। उनकी अत्यंत शालीन ,तेजस्वी और ईमानदार अफसर के नाते उनकी ख्याति थी। श्री. राजेंद्रजी पर अपने पिता की सादगी और जीवन मूल्यों के प्रति सजगता का खासा प्रभाव पड़ा था। 
         श्री. राजेंद्रजी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बुलंदशहर , नैनीताल , उन्नाव तथा दिल्ली में प्राप्त की थी। इसके आलावा उन्होंने अपनी स्नातक की परीक्षाएं बी. एस. सी. और एम. एस. सी. प्रयाग से उत्तीर्ण की थी। शिक्षा के आलावा उनका समाज कार्य के प्रति रुझान प्रारम्भ से ही था। भले ही उनका राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ से सम्बन्ध सं. 1942 के पश्चात ही बना था। 
         रज्जु भैया जब 20 वर्ष की आयु के थे तब उनके परिवारवालों ने सेना में कार्यरत डॉक्टर की पुत्री से उनको बताय बिना विवाह तय कर दिया था। नोबल पुरस्कार विजेता डॉ. सी. वी. रमन जब रज्जु भैया की एम. एस. सी. की प्रयोगात्मक परीक्षा लेने पहुंचे तो उनकी प्रतिभा से डॉ. रमन बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने उसी समय रज्जु भैया को अपने साथ बंगलोर चलकर शोध करने का आग्रह किया था।   
         रज्जु भैया का राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ से प्रयाग में संपर्क हुआ था। वहीं से वे नियमित शाखा को जाने लगे। इसी दौरान वे सरसंघचालक श्री. माधव सदाशिव गोलवलकरजी से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने सं. 1943 में काशी से प्रथम वर्ष शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण लिया था। श्री. रज्जु भैया काअपना जीवन संघ कार्य हेतु समर्पित करने के पीछे एक कारण था , प्रशिक्षण के दौरान श्री. गुरूजी का '' शिवाजी का पत्र , जयसिंह के नाम '' विषय पर बौद्धिक हुआ था, उससे प्रेरित होकर ही अपना जीवन संघ कार्य हेतु समर्पित कर दिया था।
         इसके पश्चात ही वे अध्यापन कार्य के साथ साथ शेष समय संघ कार्य में लगाने लगे। उन्होंने प्राध्यापक रहते हुए संघ कार्य हेतु पुरे उत्तरप्रदेश का प्रवास करने लगे। प्राध्यापक रज्जु भैया की पढ़ाने की शैली के कारण छात्र उनकी कक्षा के लिए उत्सुक रहते। वे सादे जीवन एवं उच्च विचारों के समर्थक थे। वे अक्सर अपनी रेल यात्रा तृतीय श्रेणी में ही करते वह भी स्वयं के पैसों से।  
         राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक श्री. बालासाहेब देवरसजी ने सं. 1994 में अपने जीवनकाल में ही श्री. राजेंद्र सिंहजीका सरसंघचालक पद पर अभिषेक कर दिया था। इस तरह अभिषेक करना संघ की पहली घटना थी।  
          प्रोफेसर राजेंद्र सिंहजी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से 60 वर्षों तक जुड़े रहे। इस दौरान उन्होंने विभिन्न प्रकार के दायित्वों का निर्वाह करते हुए अपने विनम्र व्यवहार से सभी वर्ग के लोगों का स्नेह और आशीर्वाद प्राप्त किया। सं. 1943 से 1966 तक वे प्रयाग विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करते हुए अपने प्रचारक के दायित्वों का निर्वाह करते रहे। 
           रज्जु भैया ने प्रथम वर्ष का संघ प्रशिक्षण सं. 1943 में लिया। द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण उन्होंने 1954 में लिया था। इसी दौरान श्री. भाऊराव उन्हें पुरे प्रान्त का दायित्व सौपंकर बाहर जाने की तैयारी कर चुके थे। श्री. रज्जु भैया ने तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण सं. 1957 में लिया और उत्तर प्रदेश के दायित्व का निर्वहन करने लगे।श्री. भाऊराव  सं. 1961 में वापस लौटने पर प्रान्त प्रचारक का दायित्व उन्हें वापस देकर श्री. रज्जु भैया सह - प्रान्त प्रचारक के रूप में पुनः उनके सहयोगी बने।
          उन्होंने सं. 1975 से 1977 तक आपातकाल में भूमिगत रहकर लोकतंत्र की वापसी के लिए आंदोलन खड़ा किया। वे सं. 1977 में संघ के सह - सरकार्यवाहक बने वहीं सं. 1978 मार्च में श्री. माधव राव मुलेजी का सरकार्यवाहक का दायित्व भी रज्जु भैया को दिया गया था। 
           प्रो. रज्जु भैया इस बात से बहुत दुःखी थे कि क्रांतिकारी '' बिस्मिल '' के नाम पर इस देश में कोई भव्य स्मारक हमारे नेता नहीं बना सके। वे तुर्की के राष्ट्रिय स्मारक जैसा स्मारक भारत की राजधानी दिल्ली में बना देखना चाहते थे। 
           उन्होंने कहा था - '' लच्छेदार भाषण देकर अपनी छवि को निखारने के लिए तालियाँ बटोर लेना अलग बात है , नेपथ्य में रहकर दूसरों के लिए कुछ करना अलग बात है। '' श्री. रज्जु भैया एक चिंतक , समाज सुधारक , कुशल संगठक थे। 
          श्री. रज्जू भैया बहुत संवेदनशील अन्त:करण के साथ-साथ घोर यथार्थवादी भी थे।  आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार में जब नानाजी देशमुख को उद्योग मन्त्री का पद देना निश्चित हो गया तो रज्जू भैया ने उनसे कहा कि ''नानाजी अगर आप, अटलजी और आडवाणीजी - तीनों सरकार में चले जायेंगे तो बाहर रहकर संगठन को कौन सँभालेगा?'' नानाजी ने उनकी इच्छा का आदर करते हुए तुरन्त मन्त्रीपद ठुकरा दिया और जनता पार्टी का महासचिव बनना स्वीकार किया। 
      श्री.अटलजी हों, या आडवाणीजी; अशोकजी सिंहल हों, या दत्तोपन्त ठेंगडीजी - हरेक शीर्ष नेता रज्जू भैया की बात का आदर करते  थे ; क्योंकि उसके पीछे स्वार्थ, कुटिलता या गुटबन्दी की भावना नहीं होती थी। इस दृष्टि से देखें तो रज्जू भैया सचमुच संघ-परिवार के न केवल बोधि-वृक्ष अपितु सबको जोड़ने वाली कड़ी थे, नैतिक शक्ति और प्रभाव का स्रोत थे।अपनी आयु के 81 वर्ष की आयु में 14 जुलाई 2003  में महाराष्ट्र के पुणे में उन्होंने अंतिम सांसे ली थी। 
      उनके चले जाने से केवल संघ ही नहीं अपितु भारत के सार्वजनिक जीवन में एक युग का अन्त हो गया है। रज्जू भैया केवल हाड़-माँस का शरीर नहीं थे। वे स्वयं में ध्येयनिष्ठा, संकल्प व मूर्तिमन्त आदर्शवाद की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। इसलिए रज्जू भैया सभी के अन्त:करण में सदैव जीवित रहेंगे। देखा जाये तो रज्जू भैया आज मर कर भी अमर हैं।