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 चार्य हजारीप्रसाद द्विवेदीजी

  
                             चार्य हजारीप्रसाद द्विवेदीजी आत्मपरक निबंधों के सर्वश्रेठ प्रणेता होने के साथ - साथ निबंध - शैलियों के श्रेष्ठ रचनाकार जाने जाते है। उनके लिखित निबंधों में मानवता के उच्चादर्शों का उद्घोष देखने मिलता है। भारत की सांस्कृतिक गरिमा का उन्नयन है एवं आशावाद तथा गांधीवाद के स्वर भी है। उनको प्राचीन के प्रति मोह , नविन के प्रति स्वाभाविक उत्साह है और प्राचीन तथा नविन का स्वरुप समानुपातिक रूप से उनके निबंधों में प्रदर्शित होता है। वहीं उनके निबंधों में उनके व्यक्तित्व की छाप दिखाई देती है। 
             द्विवेदीजी के  निबंध विचारों से पूर्ण तो होते थे , साथ ही उनमे चिंतनशीलता तत्वों का भी प्राधान्य भी रहता था। उनके निबंध अधिकांशता व्याख्यात्मक होते थे। कहीं - कहीं उन निबंधों में भावुकता के अंश भी प्राप्त होते है। आचार्य हजारिप्रसदजी के निबंधों में हमें उनका अन्वेषक रूप दिखाई पड़ता है। वे जो कुछ भी कहते थे , वह पूर्णतः स्पष्ट होती थी।  विचार प्रधान निबंधों के अतिरिक्त उनके कल्पना - प्रधान निबंध भी हिंदी साहित्य में अपना सानी नहीं रखते। 
            हिंदी निबंधकार , आलोचक और उपन्यासकार आचार्य हजारीप्रसादजी का जन्म 19 अगस्त 1907 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिलें के आरत दुबे का छपरा ओझवलिया नामक गांव में एक ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध परिवार में हुआ था। उनके पिता पंडित अनमोल द्विवेदी स्वयं संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। उनकी माताजी का नाम श्रीमती. ज्योतिष्मती था। आचार्यजी का बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था। 
           आचार्य हजारीप्रसादजी की प्रारम्भिक शिक्षा उनके गांव में ही हुई थी। उन्होंने बसरीकपुर के मिडिल स्कूल से सं. 1920 में मिडिल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। इसके साथ ही उन्होंने पराशर ब्रह्मचर्य आश्रम में संस्कृत का अध्ययन प्रारम्भ किया था। उन्होंने काशी में स्थित रणवीर संस्कृत पाठशाला कमच्छा से प्रवेशिका परीक्षा को प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। आचार्यजी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सं. 1927 में हाई स्कूल की परीक्षा भी उत्तीर्ण की थी। सं. 1929 में उन्होंने इंटरमीडिएट तथा संस्कृत साहित्य में '' शास्त्री '' की परीक्षा पास की। 
           चार्यजी ने सं. 1930 में ज्योतिष विषय में आचार्य की उपाधि के साथ - साथ '' शास्त्री ''की भी परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसी वर्ष नवम्बर में उन्होंने शांति निकेतन में हिंदी का अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया था। शांति निकेतन में अध्यापन के दौरान वे रविंद्रनाथ टैगोर और आचार्य क्षितिमोहन सेन का प्रभाव उन पर पड़ा था इसके चलते आचार्यजी ने साहित्य का गहन अध्ययन किया था। शांति निकेतन में लगातार 20 वर्षों तक अध्यापन कार्य करने के पश्चात आचार्यजी ने जुलाई 1950 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर तथा अध्यक्ष के रूप में अपना कार्यभार ग्रहण किया। 
           नके कुछ प्रतिद्व्न्दियों के विरोध के चलते आचार्यजी को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से मई 1960 में उन्हें निष्कासित कर दिया गया था। इसके पश्चात उन्होंने चंडीगढ़ स्थित पंजाब विश्वविद्यालय में जुलाई 1960 से प्रोफेसर और अध्यक्ष पद का दायित्व निभाया। लगभग छः वर्ष पश्चात आचार्यजी सं. 1967 में पुनः काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष बनकर लौटे। चार्य हजारीप्रसादजी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में मार्च 1968 से 1970 तक रेक्टर पदभार संभाला। वे उत्तर प्रदेश हिंदी ग्रन्थ अकादमी के अध्यक्ष रहे तथा सं. 1972 से उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ के आजीवन उपाध्यक्ष पद पर बने रहे। आचार्यजी को सं 1973 में उनके '' आलोक पर्व '' निबंध संग्रह के लिए '' साहित्य अकादमी '' पुरस्कार से सन्मानित किया गया। 
               आचार्यजी ने कलकत्ता में सं. 1940 - 46 के बीच अभिनवभारती ग्रन्थ माला का सम्पादन करते हुए सं. 1941 - 47 के बीच '' विश्वभारती पत्रिका '' का भी सम्पादन किया। वे विश्वभारती विश्वविद्यालय की एक्सेक्यूटिव कौंसिल के सदस्य भी रहें। आचार्य हजारीप्रसादजी को लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा '' डॉक्टर ऑफ लिटरेचर '' की उपाधि से सन्मानित किया गया।उन्हें सं. 1957 में भारत सरकार ने '' पद्मा  विभूषण '' से सन्मानित किया गया।   उनके साहित्यिक कार्य में ---------
   1 ] हिंदी साहित्य की भूमिका , 2 ] हिंदी साहित्य का आदिकाल , 3 ] हिंदी साहित्य का इतिहास।         4 ] भारतीय धर्मसाधना , 5 ] कबीर आदि ग्रन्थ उनके साहित्य की परख एवं इतिहास बोध की प्रखरता को दर्शाते है। 4 फरवरी 1979 को पक्षाघात के वे शिकार बने और 19 मई 1979 को ब्रेन ट्यूमर से उनका दिल्ली में निधन हो गया।