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स्वामी विवेकानंद


                      '' मै इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने   प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मै एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत दोनों की ही शिक्षा दी है। हम लोग सब धर्मो के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्मो सच्चा मान कर स्वीकार करतें है। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है।
                  मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मंदिर रोमन जाती के अत्याचार से   धूल में मिला दिया गया था ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मै गर्व काअनुभव करता हूँ। '' 
                       स भाषण की याद आते ही हमें अमेरिका स्थित शिकागो में सं. 1893 में आयोजित किये गए विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व करते हुए प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानंदजी द्वारा दिया भाषण याद आता है। स्वामी विवेकानंदजी के कारण अमेरिका तथा यूरोप के हर देश में भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदांत दर्शन पहुंचा था। 
                       रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी विवेकानंदजी ने सं. 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी। इसका उद्देश्य यह था की ऐसे साधुओं तथा सन्यासियों को संगठित करना था , जो रामकृष्ण परमहंस में आस्था रखें उनके उपदेशों को जनसाधारण तक पहुंचा सकें और संतप्त , दुखी एवं पीड़ित मानव जाति की निःस्वार्थ सेवा कर सकेउनका मानना था की सारे जीवों में स्वयं परमात्मा का ही अस्तित्व है। जो मनुष्य दूसरे जरुरत मंदों की मदद करता है या फिर सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है।
                       स्वामी विवेकानंदजी का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता के एक बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। वैसे उनका घर का नाम वीरेश्वर रखा गया था , परन्तु औपचारिक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त रखा गया। स्वामीजी के पिता का नाम श्री. विश्वनाथ दत्त था। वे कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। स्वामीजी की माताजी एक धार्मिक विचारों की महिला थी। उनका नाम भुवनेश्वरी देवी था। 
                        स्वामीजी के माता - पिता धार्मिक प्रवृति के होने के कारण उनके घर में रोज पूजा - पाठ किया जाता था। वैसे उनकी माताजी को पुराण , महाभारत और रामायण की कथा सुनने का शौक था। परिवार में धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से नरेन्द्रनाथ के मन में बचपन से ही धार्मिक तथा आध्यात्मिकता के संस्कार पड़े थे। 
                        बालक नरेन्द्रनाथ को आठ वर्ष की आयु में सं. 1871 में ईश्वरचंद्र विद्यासागर मेट्रोपोलिटन संस्थान के स्कूल में भर्ती कराया गया था। नरेन्द्रनाथ बचपन से ही अधिक कुशाग्र बुद्धि के होते हुए काफी नटखट भी थे। वे अपने स्कूल में साथी बालकों के साथ शरारत करते यहीं नहीं , उन्होंने अपने अध्यापकों के साथ भी शरारत की थी। कुछ ही वर्षों में सं. 1877 में उनका परिवार रायपुर चला गया तथा दो वर्ष वहां रहकर पुनः सं. 1879 में कलकत्ता वापिस आ गया था। नरेन्द्रनाथ ऐसे एकमात्र छात्र थे , जिन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज की प्रवेश परीक्षा में प्रथम श्रेणी में अंक प्राप्त किये थे। 
                        स्वामी विवेकानंदजी को दर्शन , इतिहास , सामाजिक विज्ञानं , धर्म , कला और साहित्य में रूचि के आलावा उन्हें वेद , उपनिषद , भगवत गीता , रामायण , महाभारत , पुराणों तथा हिन्दू शास्त्रों में गहन रूचि थी। स्वामीजी नित्य शाररिक व्यायाम किया करते थे और सभी खेलों में हिस्सा लिया करते थे। उन्होंने पश्चिमी तर्क , पश्चिमी दर्शन तथा यूरोपीय इतिहास का अध्ययन जनरल असेंबली इन्टीटूशन कलकत्ता में स्थित है , जो कलकत्ता विश्वविद्यालय का स्कॉटिश चर्च कॉलेज है। यहाँ से सं. 1881 में ललित कला की परीक्षा उत्तीर्ण की और सं. 1884 में कला में स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी। 
                       स्वामीजी सं. 1880 में ईसाई से हिन्दू धर्म में रामकृष्णजी के प्रभाव से परिवर्तित श्री. केशवचन्द्र सेन की नव विधान से जुड़ गए थे। सं. 1881 - 1884 में श्री. देवेन्द्रनाथ टैगोर के नेतृत्ववाले सेन्स बैंड ऑफ होप में सक्रीय रहे। यह गुट जो धूम्रपान और शराब पीने से युवाओं को हतोऊत्साहित करता था।   
                     नके प्रारम्भिक विश्वासों को ब्रह्म समाज ने जो एक निराकार ईश्वर में विश्वास और मूर्ति पूजा का प्रतिवाद करता था , ने प्रभावित किया तथा सुव्यवस्थित , युक्तिसंगत ,अद्वैतवादी अवधारणाओं , धर्मशास्त्र , वेदांत तथा उपनिषदों के एक चयनात्मक और आधुनिक ढंग से अध्ययन करने प्रोत्साहित किया था। 
                      स्वामी विवेकानंदजी तथा स्वामी रामतीर्थजी की अमेरिका और अन्य देशों की यात्राओं ने भारत की परंपरागत विचारधारा का नाम विश्व में ऊँचा किया था। वहाँ पर इन दोनों स्वामियों के उपदेशों और उनके ओजस्वी विचारों का स्वागत हुआ। उस समय लंदन से प्रकाशित होनेवाले '' इंडियन मिरर '' के एक संवाददाता ने सं. 1896 में लिखा है की -------
                     '' स्वामीजी ने अंग्रेजीभाषी जनता के ह्रदय में भारतवर्ष के प्रति जिस प्रेम व सहानुभूति को जाग्रत किया , वह अवश्य ही भारतवर्ष की उन्नति की सहायक शक्तियों में शीर्ष स्थान प्राप्त करेगी। ''                    
                      स संवाददाता के इस लेख से लाखों अमेरिकियों को पहली बार हमारी सांस्कृतिक महानता का आभास हुआ था। विदेशों में स्वामीजी के व्याख्यानों तथा परमहंसजी के विचारों के प्रति जो सुखद प्रतिक्रिया हुई तो स्वामीजी ने इस कार्य को जारी रखने तथा इस विचारधारा को अधिक से अधिक व्यापक प्रचार करने के महत्व का अनुभव किया था। 
                      स्वामी विवेकानंदजी ने बताया है कि वेदांत - धर्म केवल हिन्दुओं के लिए ही नहीं , मनुष्य - मात्र के कल्याण के लिए है। उन्होंने मानव सेवा के द्वारा अध्यात्म का प्रचार करने 1 मई 1897 को रामकृष्ण - मिशन की स्थापना की थी। इस मिशन का उद्देश्य था कि मानव सेवा के द्वारा अध्यात्म का प्रचार करना था। मानवजीवन का धार्मिक अथवा आध्यात्मिक पक्ष प्रचार की वस्तु है, किन्तु जनसेवा व्यावहारिक उपकरणों द्वारा ही हो सकती है।  
                       रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं कश्मीर से लेकर मद्रास तक , तथा बंगाल से लेकर गुजरात तक है। इस मिशन द्वारा औषधालय , वाचनालय , शिक्षण संस्थाएं तथा उपदेशादी के लिए मंदिरों की स्थापना की गई है। जिनमे 266 शिक्षण संस्थाएं , 13 बड़े अस्पताल 65 छोटे अस्पताल और 10 प्रकाशन केंद्र और अनेक वाचनालय शामिल है। 
                      पाश्चात्य  देशों के भ्रमण से लौटने पर स्वामीजी ने सं. 1897 में दक्षिण भारत में अपने भाषण में यह उदगार व्यक्त किये थे कि ----------
                  '' सुदीर्घ रजनी अब समाप्त होती हुई जान पड़ती है। महादुःख का प्रायः अंत ही ज्ञात होता है। महानिद्रा में निद्रित शव मानो जागृत हो रहा है। जो अंधे है , देख नहीं सकते और जो पागल है , वे समझ नहीं सकते कि हमारी मातृ भूमि अपनी गंभीर निद्रा से अब जाग रही है। अब कोई उसकी उन्नति को रोक नहीं सकता। अब यह फिर से सो नहीं सकती।  कोई बाहरी शक्ति इस समय इसे दबा नहीं सकती। ...... यह देखिये भारतमाता धीरे - धीरे आँखें खोल रही है। कुछ देर सोई थी। उठिये , उन्हें जगाइये और पूर्वापेक्षा महागौरव - मंडित करके भक्तिभाव से उन्हें अपने अनंत सिंहासन पर प्रतिष्ठित कीजिये। '' 
                  रामकृष्ण मिशन के प्रचार का प्रमुख साधन उसके प्रकाशन है। धार्मिक , आध्यात्मिक और दार्शनिक विषयों पर विभिन्न भाषाओँ में अनेक प्रामाणिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामीजी के विचारों को जनता तक पहुंचाने के लिए मिशन के प्रकाशन विभाग द्वारा स्वामीजी के पुस्तकोँ के अनुवाद प्रकाशित किये गए है। इससे हिंदी साहित्य को बहुत लाभ प्राप्त हुआ है।                   
                स्वामी विवेकानंदजी के साहित्य में ----
    1 ] ज्ञान योग , 2 ] राज योग , 3 ] कर्म योग , 4] भक्ति योग , 5 ] हिन्दू धर्म , 6 ] धर्म विज्ञानं, 
    7 ] व्यावहारिक जीवन में वेदांत, 8] स्वाधीन भारत ! जय हो !, 9 ] कवितावली , 10] भारतीय 
         नारी , 11] वर्तमान भारत उल्लेखनीय है। 
                  मानव सेवा का धर्म निभाते हुए वेदांत के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानंदजी ने 4 जुलाई 1902 में सदा - सदा के लिए अपनी आँखें मूँद ली।