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आचार्य नरेन्द्रदेव


           आचार्य नरेन्द्रदेवजी एक ऐसे जननायक थे , उनका उत्तम उदाहरण हमारे सामने है। जिन्होंने राजनैतिक कार्यों के साथ -साथ प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हिंदी की अभिरुद्धि में अधिकतम अपना योगदान दिया है। हम उन्हें स्वतंत्रता सेनानी , पत्रकार , साहित्यकार एवं शिक्षाविद के आलावा कांग्रेस समाजवादी दल के प्रमुख सिद्धांतकार के रूप में जानते है।  
                आचार्य नरेन्द्रदेवजी को बचपन से ही सार्वजनिक काम की लगन थी। उनपर हिंदी प्रेम के संस्कार श्री. लोकमान्य तिलकजी के द्वारा हुए थे। इस सम्बन्ध में उन्होंने अपने एक संस्मरण में लिखा है -
         '' मैंने घर पर तुलसीकृत रामायण और समग्र हिंदी महाभारत पढ़ा। इनके अतिरिक्त बैताल - पच्चीसी , सिंहासन बत्तीसी ,सूरसागर आदि पुस्तकें भी पढ़ी। उस समय चंद्रकांता की बड़ी शोहरत थी। मैंने इस उपन्यास को सोलह बार पढ़ा होगा।  चंद्रकांता संतति को ,जो चौबीस भाग में है , एक बहार पढ़ा था। न मालुम कितने लोगों ने चंद्रकांता पढ़ने के लिए हिंदी सीखी होगी। ''
                      आचार्य नरेन्द्रदेवजी का जन्म सं. 1889 में उत्तर प्रदेश स्थित सीतापुर के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री. बलदेव प्रसादजी की गणना सीतापुर के बड़े वकीलों में की जाती थी।
                                       
           उनका दस वर्ष की आयु में यज्ञोपवीत संस्कार हुआ था। वे अपने पिता के साथ नित्य संध्या - वंदन और भगवद्गीता का पाठ किया करते थे। आचार्यजी को एक महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण सस्वर वेदपाठ सिखाते। उन्हें उस समय सम्पूर्ण गीता कंठस्थ भी थी। 
            सं. 1899 में लखनऊ में कांग्रेस का अधिवेशन आयोजित किया गया था उस दौरान आचार्यजी के पिता श्री. बलदेव प्रसादजी अधिवेशन में एक डेलीगेट के रूप में पहुंचे थे।  प्रत्येक डेलीगेट को बैज लगाना अनिवार्य था , जो एक कपडे से बना होता था। 
           यह देख आचार्यजी ने भी वैसा ही एक 'बैज ' दर्जी से बनवाया और उसको लगाकर '' विज़िटर्स '' गैलरी में जा बैठे। इसी अधिवेशन में उन्होंने जाना की लोकमान्य तिलकजी , श्री. रमेशचन्द्र दत्त और जस्टिस रानडे देश के बड़े नेताओं में से है। 
         आचार्यजी के मन में भारतीय संस्कृति के प्रति अनुराग उपजा। इसी कारण आगे चलकर उन्होंने एम्. ए. में संस्कृत से शिक्षा ली। इससे पहले उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी. ए. किया था। इसमें सफलता पाने के पश्चात आचार्यजी ने पुरातत्व पढ़ने के लिए काशी स्थित क्वींस कॉलेज में दाखिला लिया था। 
         नरेन्द्रदेवजी ने सं. 1913 में एम्. ए. पास किया था। उनके घरवाले उनसे वकालत पढ़ने की ज़िद करने लगे , परन्तु उन्हें वकालत का पेशा पसंद नहीं था। किन्तु वकालत करते हुए राजनीति में भाग ले सकने की सम्भावना से वे उन्होंने वकालत की थी। इस कारण आचार्यजी कांग्रेस तथा सोशल कॉन्फ्रेंस के कार्यों में दिलचस्पी लेते थे। 
          उन्होंने अपनी वकालत के पांच वर्ष सं. 1915 - 20 तक फैजाबाद में बिताए।  इसी बीच देश में असहयोग आंदोलन प्रारम्भ हुआ था। यह आंदोलन शुरू होने के पश्चात श्री. जवाहरलाल नेहरू की सूचना और उनके मित्र श्री. शिवप्रसाद गुप्त के आमंत्रण पर वे विद्यापीठ पहुंचे। 
           आचार्यजी जब प्रयाग में अध्ययन कर रहे थे उस समय हिन्दू बोर्डिंग हाउस उग्र विचारों का केंद्र था। इसी कारण वे गरम दल के विचारों से प्रभावित हो गए थे। उन्होंने सं 1906 में उग्र विचारधारा अपनाई तो फिर जीवन भर उसी पर दृढ़ रहे। 
            गरम दल के होने के कारण उन्होंने सं. 1905 में कांग्रेस अधिवेशनो में जाना छोड़ दिया था। सं. 1916 में कॉग्रेस के दोनों दलों में मेल हुआ तब फिर से वे कांग्रेस में आ गए। आचार्यजी सं. 1916 से 1948 तक ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी के सदस्य तथा जवाहरलाल नेहरू की वर्किंग कमिटी के सदस्य भी थे।
            इसके आलावा महात्मा गाँधी द्वारा स्थापित काशी विद्यापीठ में अध्यापक का काम करने लगे और बाद में उसके आचार्य भी बने।  विशुद्ध विद्वत्ता , गंभीर विवेचन तथा अच्छी जनसेवा की भावना , इन सबका सुन्दर समिश्रण उनके व्यक्तित्व में पाया जाता था। 
           आचार्यजी ने भाषाओँ और भाषा -विज्ञान का ही गहन अध्ययन नहीं किया , बल्कि इतिहास और राजनीति शास्त्र के भी वे प्रकांड पंडित थे। हिंदी के प्रति श्रद्धा और स्नेह उन्हें परंपरा से मिले थे। 
          उन्होंने काशी विद्यापीठ पहुंचते ही उपयुक्त गहन विषयों पर हिंदी में लिखना आरम्भ किया। आचार्यजी ने इतिहास , राजनीती और समाज शास्त्र पर हिंदी में लेख और पुस्तकें लिखी। उनका उद्देश्य यह था की विद्यापीठ के विद्यार्थिओं के लिए अच्छी पाठ्य पुस्तकें उपलब्ध हो , वहां वह साधारण हिंदी पाठकों की ज्ञानपिपासा को भी शांत करना चाहते थे। 
          काशी विद्यापीठ में कार्य आरम्भ करते ही विदेशों के इतिहास पर छोटे -छोटे ग्रन्थ लिखे। इनमे इंग्लैंड , आयरलैंड ,रूस , इटली ,अमरीका आदि के इतिहास सम्मिलित है। 
          नरेन्द्रदेवजी शिक्षा शास्त्र के भी पूर्ण पंडित थे। विभिन्न शिक्षा - प्रणालियों का उनका गहन अध्ययन था और देश की शिक्षा समस्या पर उन्होंने बहुत कुछ लिखा है। उन्होंने राजनीति के पश्चात सबसे अधिक शिक्षा पर ही लिखा है। उनका दॄष्टिकोण एक बुद्धिवादी का था , किन्तु क्रियात्मक।  उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में विद्यार्थी तथा शिक्षक दोनों का बड़ा महत्त्व था। आधुनिक दॄष्टिकोण के अनुसार शिक्षकों की स्थिति को सुधारने की ओर ध्यान दिलाते हुए लिखा है ---- 
                 '' प्राचीन काल में शिक्षा देने का भार ब्राह्मण , बौध्द भिक्षु , पादरी या मौलवियों पर था। समाज में उनके लिए बड़ा सन्मान था। केवल भोजन और वस्त्र लेकर ही वह समाज की शिक्षा की व्यवस्था करते थे। दानशील व्यक्ति और राज्य की ओर से इनकी संस्थाओं को सहायता मिलती थी। .....  जो  शिक्षक थे उनको समाज आदर की दृष्टी से देखता था , किन्तु आज मनुष्य का मापदंड रूपया हो गया है।  शिक्षा के क्षेत्र में योग्य शिक्षकों की कमी का कारण भी यही है। यह चिंता का विषय है और इसपर गंभीरता के साथ विचार करने की आवश्यकता है। हमारा भविष्य उज्वल हो , इसके लिए अध्यापन के काम को आकर्षक बनाना पड़ेगा। ''
          आचार्यजी ने सं. 1930 में नमक सत्याग्रह के दौरान उनका स्वास्थ ख़राब हो गया था। फिर भी उन्होंने सं. 1932 के आंदोलन तथा 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन में साहस के साथ भाग लिया तथा जेल की यात्रायें सहिं थी। उन्हें सं. 1942 में चार महीनो तक गांधीजी ने अपने आश्रम में चिकित्सा के लिए रखा था। उनका स्वास्थ अधिक खराब होने के कारण गांधीजी ने अपना मौन तोडा था।  जब 8 अगस्त42 को गांधीजी ने '' करों या मरों '' प्रस्ताव रखा , बम्बई में आचार्यजी कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों के साथ गिरफ़्तार हो गए थे। सं. 1942 - 45 तक श्री.जवाहरलाल नेहरू के साथ अहमदनगर के किले में बंद रहे।  
        आचार्यजी ने सं. 1934 में श्री. जयप्रकाश नारायण , डॉ. राममनोहर लोहिया और अन्य सहयोगियों के साथ कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। वहीं सं. 1934में हुए प्रथम अधिवेशन के अध्यक्ष पद पर आचार्यजी ही थे। 
        आचार्यजी की प्रकाशित रचनाओ से अधिक बेजोड़ उनके भाषण रहें है। उन्होंने '' विद्यापीठ '' त्रैमासिक पत्रिका , '' समाज '' त्रैमासिक , '' जनवाणी '' मासिक , '' संघर्ष '' और '' समाज '' साप्ताहिक पत्रों का संपादन किया था। इनमे जो लेख , टिपण्णियां समय -समय पर प्रकाशित हुए है उनके संग्रह है , जैसे राष्ट्रीयता और समाजवाद , समाजवाद : लक्ष्य तथा साधन , सोशलिस्ट पार्टी और मार्क्सवाद ,भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास , युद्ध और भारत , किसानो का सवाल आदि। ऐसे महान जननायक ने देश की सेवा करते हुए 19 फरवरी 1956 को अपनी आँखें सदा के लिए मूँद ली।