स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है - श्री. लोकमान्य बालगंगाधर तिलक 

                                                                           


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लोकमान्य बालगंगाधर तिलक


                    यह वक्तव्य सं. 1908 में चर्चित मुकदमे के दौरान भारतीय राष्ट्रवादी, शिक्षक, समाज सुधारक, वकील और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम लोकप्रिय नेता श्री. बाल गंगाधर तिलकजी ने अदालत में दिया था। इस अदालत में उन्होंने अपने मुकदमे की जिरह स्वयं की थी। वे तीन दिनों तक बहस करते रहे, परन्तु उनके प्रश्नो का उत्तर सरकारी वकील न दे सका। जबकि मुकदमे में प्रस्तुत किया गया अनुवाद दोष पूर्ण था। श्री. तिलकजी को अदालत ने छहः वर्ष के लिए देश से निर्वासित किये जाने का दण्ड दिया ।

                 श्री. तिलकजी के इस मुकदमे के अनोखे निर्णय की विश्व में बहुत चर्चा की गयी थी। उस दौरान मास्को में लेनिन ने एक टिपण्णी में कहा था कि—"भारतीय जननायक तिलक को जो घृणित दण्ड दिया गया है, उसके विरुद्ध बम्बई की गलियों में प्रदर्शन हुए."

            स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है का नारा देने वाले श्री. लोकमान्य तिलकजी का जन्म महाराष्ट्र स्थित रत्नागिरी जिले के एक गांव चिखली में एक मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में 23 जुलाई 1856 को हुआ था। उनके पिता का नाम श्री.  गंगाधर रामचंद्र पंत था तथा उनकी माताजी का नाम पार्वती बाई था। श्री. रामचंद्र पंतजी रत्नागिरी जिले में ही एक सहायक अध्यापक के रूप में कार्यरत थे।
           बंगाल की ' नेशनल कौंसिल ऑफ एजुकेशन ' की भांति सं. 1880 में एक नई शिक्ष संस्था की स्थापना की थी, जिसका नाम 'न्यू इंग्लिश स्कूल' था। इसी के अंतर्गत 'समर्थ विद्यालय' संस्था की भी स्थापना की। इस संस्था की एक मुख्य विशेषता यह थी कि यह न तो सरकार से अनुदान लेती थी और न किसी प्रकार का सरकारी हस्तक्षेप स्वीकार करती थी। इसके पश्चात 'महाराष्ट्र विद्या-प्रसारक मंडल' का उदय हुआ।

             श्री. लोककमान्य बालगंगाधर तिलकजी भारतीय राष्टीय कॉंग्रेस में शामिल हुए परन्तु जल्द ही वे कांग्रेस के नरमपंथी रवैये के विरुद्ध बोलने लगे। सं. 1907 में गरमदल और नरमदल में विभाजन हो गया। श्री. तिलकजी गरमदल में चले गए वहीं पर उनका परिचय श्री. लाला लाजपत राय और श्री. बिपिनचंद्र पाल से हुआ और यहीं से इनमे घनिष्ठता बढ़ी। तभी तो वे तीनो लाल-बाल-पाल के नाम से परिचित हो गए. सं। 1908 में श्री. तिलकजी ने क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी तथा क्रन्तिकारी खुदीराम बोस के बम हमले का समर्थन किया था। इसी कारण सरकार ने उन्हें म्यांमार [बर्मा] स्थित मांडले की जेल में भेज दिया था।
         सं.1916 में एनीबेसेन्ट और मुहम्मद अली जिन्ना के साथ मिलकर होम रूल की स्थापना की। उन्होंने पहले ही सं. 1881 में मराठी भाषा में 'केसरी' समाचार पत्र की स्थापना की थी, उन्होंने अपने समाचारपत्र में 'देश का दुर्भाग्य' शीर्षक से एक लेख लिखा था जिसमे उन्होंने ब्रिटिश सरकार की नीतियों का विरोध किया था। इसी के फलस्वरूप श्री. तिलकजी को 6 वर्ष के कठोर कारावास के अंतर्गत मांडले जेल में बंद कर दिया था।
          श्री. लोकमान्य तिलकजी ने ही सबसे पहले पूर्ण स्वराज की मांग उठायी थी। सं.1893 में सार्वजनिक गणेशोत्सव का आयोजन किया था, इसके पीछे उनका यह उद्देश्य था कि सभी जातियों धर्मो को एक साझा मंच देकर जनता में देशप्रेम और अंग्रेजों के अन्यायों के विरुद्ध संघर्ष का साहस भरा जाए। 
           आख़िरकार 1अगस्त 1920 को इस महान स्वतंत्रता सेनानी एवं समाज सुधारक श्री. तिलकजी ने बम्बई में अपनी आँखें हमेशा-हमेशा के लिए मूँद ली। उन्होंने कई पुस्तकें लिखी जिनमे प्रमुखता से 'वेद काल का निर्णय' , 'आर्यों का मूल निवास स्थान,' 'गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र' , 'वेदों का काल-निर्णय और वेदांग ज्योतिष,' हिंदुत्व ' और श्यामजी कृष्ण वर्मा को लिखे लोकमान्य तिलक के पत्र शामिल है।